मुकदमों तथा मुकदमेबाजी को कम करने के जितने भी उपाय किये जा रहे हैं वे मुकदमों की बढ़ती तादात के सामने बौने साबित हो रहे हैं। जाने कितने लोग न्याय व अंतिम निर्णय की आस में जीवन बिता देते है, उनकी अगली पीढ़ी का भी जीवन बीत जाता है। विशेषतया, भाई बंधुओं के बीच मुक़दमेबाजी में तो हर कोई हारता है, वास्तव में दोनों ही पक्ष हारते है। अंतिम निर्णय अर्थात मुकदमेबाजी के अवसान पर जीतने वाला भी अपनी बर्बादी की तुलना में कुछ नहीं पाता । मुकदमेबाजी को कम करने के लिए केवल सरकारी प्रयास से समस्या का निदान संभव नहीं है।
विद्वेष और मुकदमेबाजी की मानसिकता के विरुद्ध हमारा नारा है:
"मुक़दमे ने तुमको मारा, इस मुक़दमे को
मार डालो !"
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
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मेरे दिमाग मे एक मुकदमा सदा से चला आ रहा है। वादी भी मै हूं और प्रतिवादी भी मै ही हूं। न्यायाधीश चुपचाप दोनो पक्षों के मुद्दों को बडे ध्यान से सुनता रहता है। अब उसे समझ मे आ गया है कि मै तो मुकदमेबाज हूं। उसने अपना अंतिम फैसला सुना दिया है। अब बस करो और ये लाइन गुनगुनाओ
जवाब देंहटाएं"मुकदमे पर मुकदमे का मुकदमा"
बहुत अच्छा। आपकी टिप्पड़ी से मुझे श्रीमदभगवद्गीता का यह वाक्य स्मरण हो रहा है:
जवाब देंहटाएं"आत्मन्येवात्मना मित्र: आत्मैव रिपुरात्मन:" अर्थात किसी का कोई अन्य मित्र या शत्रु नहीं है अपितु, वह स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु है।